भक्त मंडली

बुधवार, 15 जनवरी 2014

चौदह बरस विरह-ताप को कैसे सहेगी उर्मिला ?


देख कर उर्मिल का मुख ,
माँ का ह्रदय व्यथित हुआ ,
दैव ने नव-वधु को
क्यूँ ये दारुण दुःख दिया ?
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भर आये अश्रु नयनों में ,
जननी लखन की हुई विकल ,
मन में उठे ये भाव थे ,
होनी ही होती है प्रबल !
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लाये थे भ्रात चारो जब ,
ब्याह कर वधू साकेत में ,
आनंद छा गया था तब ,
दशरथ के इस निकेत में !
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वो दिवस और आज का ,
दोनों में कितना भेद है !
कैकेयी जीजी को भी अपनी
करनी पर अब खेद है !
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ये सोचती सुमित्रा ने
उर्मिल से बस इतना कहा ,
आ निकट पुत्री ! मेरी
न मन ही मन अश्रु बहा !
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उर्मिल ने देखा मात को
आई वहाँ उनके निकट ,
माता की पीड़ा देखकर
उर गया उर्मिल का फट !
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बोली दबाकर पीड़ा निज
माँ ! आज आप मौन हैं !
बस देखती एकटक मुझे
और सब कुछ गौण है !
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माता ने देखा नेह से
उर्मिल निकट ही थी खड़ी ,
नन्ही सी उनकी उर्मिला
करने लगी बातें बड़ी !
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उर के समीप लाइ तब
ममता छलकने थी लगी ,
मुरझाये न दुःख -ताप से
मेरी सुकोमल सी कली !
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चौदह बरस विरह-ताप को
कैसे सहेगी उर्मिला ?
जब मैं स्वयं अधीर हूँ
कैसे दूं इसको सांत्वना ?
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देख माता को विकल
उर्मिल ने बस इतना कहा ,
हे मात! रखिए धैर्य
टल जायेगा संकट महा !
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मैं हूँ जनक की नंदनी
सीता की छोटी हूँ बहन ,
हमको सिखाया मात ने
कैसे निभाते पत्नी-धर्म ?
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विचलित नहीं व्यथित नहीं ,
मुझको अटल विश्वास है ,
आयेंगें लौट सब कुशल ,
चौदह बरस की बात है !
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आप चिंतित न हो माँ !
है ये परीक्षा की घडी ,
धर्म -पथ पर बढे प्रिय
उर्मिल भी उस पर बढ़ चली !
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अब शोक मात !त्यागिये ,
उर्मिल निवेदन कर रही ,
हैं आप ही सम्बल मेरा
हे मात ! आप महिमामयी !
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उर्मिल वचन फुहार से
माँ का ह्रदय शीतल भया ,
मनोकामना बस हो कुशल से
लखन संग रघुबर-सिया !

शिखा कौशिक 'नूतन'

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