भक्त मंडली

रविवार, 21 अप्रैल 2013

'हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है '

'हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है '


हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है ,
मीठी निंदिया के अर्णव में खुद को डुबोता है .
हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है !

मखमल सा कोमल है लल्ला नाम है इसका राम ,
मैं कौशल्या वारी जाऊं सुत मेरा  भगवान ,
ऐसा सुत पाकर हर्षित मेरा मन होता है !
हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है !

मुख की शोभा देख राम की चन्द्र भी है शर्माता ,
मारे शर्म के हाय ! घटा में जाकर है छिप जाता ,
फिर चुपके से मुख दर्शन कर धीरज खोता है !
हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है !

स्वप्न अनेकों देख रहा है सुत मेरा निंद्रा में ,
अधरों पर मुस्कान झलकती राम के क्षण क्षण में ,
मधुर स्वप्न के पुष्पों को माला में पिरोता है !
हौले हौले बह समीर मेरा लल्ला सोता है !

शिखा कौशिक 'नूतन'
मौलिक व् अप्रकाशित 
 

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

! रामनवमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !

! रामनवमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !
किलकारी मारें बजाकर खन खन कंगना ,
नन्हें से राम लल्ला खेलें  दशरथ के अंगना !


मैय्या कौशल्या उर आनंद लहरे उमड़े ,
पैय्या चले तो पकड़ने को वे दौड़े ,
लेती बलैय्या आँचल में हैं छिपती ललना !
नन्हें से राम लल्ला खेलें  दशरथ के अंगना !

चारों भैय्या मिलकर माखन चुराते हैं ,
बड़े हैं भाई राम सबको खिलाते हैं ,
माटी के बर्तन फोड़ें आये पकड़ में ना !
 नन्हें से राम लल्ला खेलें  दशरथ के अंगना !

राम के मुख की शोभा बरनि न जाये है ,
सुन्दरता देख उन्हें खुद पर लजाये है ,
शोभा की खान राम किसी से क्या तुलना !
 नन्हें से राम लल्ला खेलें  दशरथ के अंगना !

            शिखा कौशिक 'नूतन '

ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !

 
हे लक्ष्मण तू बड़भागा है श्री राम शरण में रहता है ,
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !

प्रभु इच्छा से ही संभव है प्रभु सेवा का अवसर मिलना ,
हैं पुण्य प्रताप तेरे लक्ष्मण प्रभु सेवा अमृत फल चखना ,
मेरा उर व्यथित होकर के क्षण क्षण ये मुझसे कहता है !
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !

 कैकेयीनंदन होने का महा कलंक  मुझ पर है लगा ,
पर ह्रदय साक्षी मेरा है 'श्री राम से बढ़कर नहीं सगा ',
ह्रदय व्यथा ही प्रकट करता जब नयन से अश्रु बहता है !

 ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !

 मैं चित्रकूट में आया था प्रभु को लौटा ले जाऊंगा ,
निज-निज धर्म बना बेडी अब चौदह बरस निभाऊंगा,
प्रभु -पादुका शीश पे धर प्रभु के अधीन हो लेता है !
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

राज हो वनवास हो सीता सदा श्री राम संग !

 

 हूँ जनक की नन्दनी श्री राम की दासी हूँ मैं ,
स्वामी चले वनवास को छोड़ सब सुख -रास-रंग !


ज्यूँ चुभा कंटक कोई रुकता न पग बढती उमंग ,
राज हो वनवास हो मैं सदा श्री राम संग !


उर में मेरे उल्लास है कि मैं प्रिय के साथ हूँ ,
जब भी उन्हें निहारती मन में उठे अद्भुत तरंग !


कैसे रुकूँ  महलों में अब जाना प्रिय के साथ है ,
सीता के सर्वस्व हैं जब से किया शिव-धनुष-भंग !




सिया-राम दोनों एक हैं मैं देह हूँ वे प्राण हैं ,
है मिलन अपना अटल ज्यों पुष्प में व्यापी सुगंध !

 
      शिखा कौशिक 'नूतन '




शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

सीता अपमान का प्रतिउत्तर !


 
सीता अपमान का प्रतिउत्तर !
आज जनकपुर स्तब्ध  भया ;  डोल गया विश्वास है  ,
जब से जन जन को ज्ञात हुआ मिला सीता को वनवास है .

मिथिला के जन जन के मन में ये प्रश्न उठे बारी बारी ,
ये घटित हुई कैसे घटना सिया राम को प्राणों से प्यारी ,
ये कुटिल चाल सब दैव की ऐसा होता आभास है .

हैं आज जनक कितने व्याकुल  पुत्री पर संकट भारी है ?
ये होनी है बलवान बड़ी अन्यायी अत्याचारी है ,
जीवन में शेष कुछ न रहा टूटी मन की सब आस है .

माँ सुनयना भई मूक बधिर अब कहे सुने किससे और क्या ?
क्या इसीलिए ब्याही थी सिया क्यों कन्यादान था हमने किया ?
घुटती   भीतर भीतर माता आती न सुख की श्वास है !

सीता की सखियाँ  रो रोकर हो जाती आज अचेत हैं ,
प्रस्तर से ज्यादा हुआ कठोर श्रीराम का ये साकेत है ,

सीता हित चिंतन करती वे हो जाती सभी उदास हैं !

मिथिलावासी करते हैं प्राण युग युग तक सभी निभावेंगे ,
पुत्री रह जाये अनब्याही अवध में नहीं ब्याहवेंगें ,
सीता अपमान का प्रतिउत्तर मिथिला के ये ही पास है  !


शिखा कौशिक 'नूतन'

  

रविवार, 4 नवंबर 2012

वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!

वैदेही सोच रही मन  में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!



वैदेही सोच रही मन  में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते ,
लव-कुश की बाल -लीलाओं  का आनंद प्रभु संग में लेते .



जब प्रभु बुलाते लव -कुश को आओ पुत्रों समीप जरा ,
घुटने के बल चलकर जाते हर्षित हो जाता ह्रदय मेरा ,
फैलाकर बांहों का घेरा लव-कुश को गोद उठा लेते !
वैदेही सोच रही मन  में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!

ले पकड़ प्रभु की ऊँगली जब लव-कुश चलते धीरे -धीरे ,
किलकारी दोनों की सुनकर मुस्कान अधर आती मेरे ,
पर अब ये दिवास्वप्न है बस रोके आंसू बहते-बहते .
वैदेही सोच रही मन  में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!

लव-कुश को लाकर उर समीप दोनों का माथा लिया चूम ,
तुम केवल वैदेही -सुत हो ; जाना पुत्रों न कभी भूल ,
नारी को मान सदा देना कह गयी सिया कहते -कहते . 
वैदेही सोच रही मन  में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!

                                                                                              शिखा कौशिक 'नूतन '